बुधवार, 4 अक्टूबर 2023

Param Ekadashi सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य का दिन

अक्टूबर 04, 2023 0


परम एकादशी व्रत एक महत्वपूर्ण हिंदू व्रत है जो हर साल कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है. इस व्रत को भगवान विष्णु के लिए रखा जाता है और इस दिन लोग भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और व्रत रखते हैं. इस व्रत को रखने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और सभी पापों से मुक्ति मिलती है.


परम एकादशी व्रत का वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है. स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने स्वयं कहा है कि जो व्यक्ति परम एकादशी व्रत रखता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है और वह मोक्ष प्राप्त कर जाता है.

परम एकादशी व्रत को रखने के लिए कुछ नियम हैं. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को मांस, मदिरा और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करनी चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को व्रती भोजन करना चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु की कथा सुननी चाहिए.

परम एकादशी व्रत को रखने से कई लाभ होते हैं. इस व्रत को रखने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है. इस व्रत को रखने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है. इस व्रत को रखने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस व्रत को रखने से सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होती है. इस व्रत को रखने से परिवार में सुख-शांति रहती है. इस व्रत को रखने से संतान प्राप्ति होती है. इस व्रत को रखने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

परम एकादशी व्रत को रखने के लिए कुछ उपाय हैं. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करने के बाद, भगवान विष्णु को तुलसी दल अर्पित करना चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु को फल, फूल और मिठाई अर्पित करनी चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु की कथा सुननी चाहिए. इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करना चाहिए.

परम एकादशी व्रत एक बहुत ही महत्वपूर्ण व्रत है. इस व्रत को रखने से सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है. इस व्रत को सभी लोगों को रखना चाहिए.

यह व्रत सभी के लिए लाभकारी है. इस व्रत को सभी लोग रख सकते हैं. इस व्रत को रखने से सभी को लाभ होगा. इस व्रत को रखने से सभी को सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होगी.

परम एकादशी व्रत के दिन कुछ विशेष कार्य करने चाहिए. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करना चाहिए. इस दिन भगवान विष्णु को तुलसी दल अर्पित करना चाहिए. इस दिन भगवान विष्णु को फल, फूल और मिठाई अर्पित करनी चाहिए. इस दिन भगवान विष्णु की कथा सुननी चाहिए. इस दिन भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करना चाहिए.


परम एकादशी व्रत 2023 में 12 अगस्त, शनिवार को है. परम एकादशी व्रत भगवान विष्णु को समर्पित एक महत्वपूर्ण व्रत है. इस दिन लोग व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु की पूजा करते हैं.

परम एकादशी व्रत की पूजा विधि इस प्रकार है:
सुबह जल्दी उठकर स्नान करें.
साफ कपड़े पहनें.
भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर के सामने एक चौकी लगाएं.
चौकी पर एक धोती बिछाएं.
धोती पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर रखें.
भगवान विष्णु को फूल, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करें.
भगवान विष्णु की आरती करें.
भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करें.
भगवान विष्णु से प्रार्थना करें कि वे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी करें.

परम एकादशी व्रत का पारण अगले दिन दोपहर के बाद किया जाता है. पारण के समय, एक बार फिर भगवान विष्णु की पूजा करें. फिर, सात्विक भोजन करें.

परम एकादशी व्रत एक बहुत ही पवित्र व्रत है. इस व्रत को रखने से सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है. इस व्रत को सभी लोगों को रखना चाहिए.


Hariyali Teej उपवास : महत्व और लाभों के बारे जानें

अक्टूबर 04, 2023 0


हरियाली तीज एक हिंदू त्योहार है जो भगवान शिव और देवी पार्वती के मिलन का जश्न मनाता है। यह श्रावण माह के शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है, जो आमतौर पर जुलाई या अगस्त में पड़ता है। इसे श्रावणी तीज, छोटी तीज या मधुसरवा तीज के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत, विशेषकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और झारखंड में महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। महिलाएं व्रत रखती हैं, हरे कपड़े और आभूषण पहनती हैं, अपने हाथों और पैरों पर मेहंदी लगाती हैं और सजाए गए झूलों पर झूलती हैं। वे भगवान शिव और देवी पार्वती की भी पूजा करते हैं और हरियाली तीज कथा सुनते हैं, जो उनके विवाह की कहानी बताती है। हरियाली तीज प्रकृति का त्योहार भी है, क्योंकि यह मानसून के मौसम और पृथ्वी की हरियाली के आगमन का प्रतीक है।


हरियाली तीज: प्रेम और प्रकृति का त्योहार

हरियाली तीज हिंदू संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण और खुशी वाले त्योहारों में से एक है। यह श्रावण माह के शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है, जो आमतौर पर जुलाई या अगस्त में पड़ता है। हरियाली शब्द का अर्थ हरियाली है और तीज का तात्पर्य तीसरे दिन से है। इस प्रकार, हरियाली तीज मानसून के मौसम और तीसरे दिन की शुभता के साथ आने वाली हरियाली का प्रतीक है।


यह त्योहार भगवान शिव और देवी पार्वती के दिव्य प्रेम की याद दिलाता है, जिन्हें हिंदू पौराणिक कथाओं में आदर्श युगल माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव द्वारा अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किए जाने से पहले देवी पार्वती का 108 बार जन्म हुआ था। उसने उसका दिल जीतने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या और उपवास किया। अंततः हरियाली तीज के दिन भगवान शिव उनसे विवाह करने के लिए राजी हो गये। तभी से हरियाली तीज को उनके पुनर्मिलन के दिन के रूप में मनाया जाता है।


हरियाली तीज मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, जो अपने पतियों की भलाई और लंबी उम्र के लिए सख्त व्रत रखती हैं। वे वैवाहिक सुख और सद्भाव के लिए भगवान शिव और देवी पार्वती से भी प्रार्थना करते हैं। अविवाहित महिलाएं भी भगवान शिव जैसा अच्छा पति पाने के लिए व्रत रखती हैं और प्रार्थना करती हैं। महिलाएं नए कपड़े पहनती हैं, विशेषकर हरे रंग के, जो समृद्धि और उर्वरता का प्रतीक है। वे खुद को आभूषण, चूड़ियाँ, बिंदी, सिन्दूर और मेहंदी से सजाती हैं। मेहंदी को बहुत शुभ और प्यार और खुशी का प्रतीक माना जाता है। महिलाएं अपने हाथों और पैरों पर मेहंदी के जटिल डिजाइन लगाती हैं और ऐसा माना जाता है कि मेहंदी का रंग जितना गहरा होगा, उन्हें अपने पति से उतना ही अधिक प्यार मिलेगा।


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हरियाली तीज का सबसे आनंददायक पहलू पेड़ों या छतों पर लटकाए गए सजाए गए झूलों पर झूलना है। महिलाएं अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों के साथ झूला झूलते हुए लोक गीत गाती हैं और नृत्य करती हैं। ऐसा कहा जाता है कि झूला भगवान शिव और देवी पार्वती के बीच के रोमांस को दर्शाता है, जिन्हें अक्सर चित्रों और मूर्तियों में झूले पर बैठे हुए दिखाया जाता है। झूला झूलना जीवन की खुशी और उतार-चढ़ाव के बीच संतुलन का भी प्रतीक है।


हरियाली तीज का एक अन्य महत्वपूर्ण अनुष्ठान हरियाली तीज कथा को सुनना या सुनाना है, जो भगवान शिव और देवी पार्वती के विवाह की कहानी बताती है। कथा इस दिन उपवास के महत्व और लाभों के बारे में भी बताती है। महिलाएं भक्ति और श्रद्धा के साथ कथा सुनने या सुनाने के लिए मंदिरों में या घर पर इकट्ठा होती हैं।


हरियाली तीज प्रकृति का त्योहार भी है, क्योंकि यह मानसून के मौसम और पृथ्वी की हरियाली के आगमन का प्रतीक है। यह त्यौहार प्रकृति की उदारता और सुंदरता का जश्न मनाता है जो जीवन को कायम रखती है। हरियाली तीज का हरा रंग प्रकृति की ताजगी और जीवन शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। यह त्यौहार विभिन्न पौधों और जानवरों का भी सम्मान करता है जो भगवान शिव और देवी पार्वती से जुड़े हैं, जैसे सांप, मोर, गाय, कमल, आदि।

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हरियाली तीज एक ऐसा त्योहार है जो सभी के लिए खुशियां और सद्भाव लाता है। यह पति-पत्नी के साथ-साथ माता-पिता और बेटियों के बीच के रिश्ते को भी मजबूत बनाता है। यह प्रकृति और उसके उपहारों के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा की भावना को भी बढ़ावा देता है। हरियाली तीज एक ऐसा त्योहार है जो प्रेम और प्रकृति के सभी रूपों का जश्न मनाता है।

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023

कैलाश मानसरोवर Kailash Mansarovar Yatra

अक्टूबर 03, 2023 0

कैलाश मानसरोवर को शिव-पार्वती का घर माना जाता है. सदियों से देवता, दानव, योगी, मुनि और सिद्ध महात्मा यहां तपस्या करते आए हैं. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार हिमालय जैसा कोई दूसरा पर्वत नहीं है क्योंकि यहां भगवान शिव का निवास है और मानसरोवर भी यहीं स्थित है. हर वर्ष मई-जून महीने में भारत सरकार के सौजन्य से सैकड़ों तीर्थयात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा करते हैं.

क़ैलाश मानसरोवर की यात्रा (Kailash Mansarovar Yatra Route Details in Hindi): क़ैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए तीर्थयात्रियों को भारत की सीमा लांघकर चीन में प्रवेश करना पड़ता है क्योंकि यात्रा का यह भाग चीन में है. कैलाश पर्वत की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 20 हजार फीट है. यह यात्रा अत्यंत कठिन मानी जाती है. कहते हैं जिसको भोले बाबा का बुलावा होता है वही इस यात्रा को कर सकता है. 

सामान्य तौर पर यह यात्रा 28 दिन में पूरी होती है. कैलाश पर्वत कुल 48 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. कैलाश पर्वत की परिक्रमा वहां की सबसे निचली चोटी दारचेन से शुरू होकर सबसे ऊंची चोटी डेशफू गोम्पा पर पूरी होती है. यहां से कैलाश पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है, मानों भगवान शिव स्वयं बर्फ से बने शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं. इस चोटी को हिमरत्न भी कहा जाता है.

कैलाश मानसरोवर (Kailash Mansarovar): कैलाश पर्वत पर एक गौरीकुंड है. यह कुंड हमेशा बर्फ से ढका रहता है, मगर तीर्थयात्री बर्फ हटाकर इस कुंड के पवित्र जल में स्नान करते हैं. यह पवित्र झील समुद्र तल से लगभग 4 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है और लगभग 320 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है. यहीं से एशिया की चार प्रमुख नदियां- ब्रह्मपुत्र, करनाली, सिंधु और सतलज निकलती हैं.

कैलाश मानसरोवर का महत्व (Importance of Kailash Mansarovar): मान्यता के अनुसार, जो व्यक्ति मानसरोवर (झील) की धरती को छू लेता है, वह ब्रह्मा के बनाये स्वर्ग में पहुंच जाता है और जो व्यक्ति झील का पानी पी लेता है, उसे भगवान शिव के बनाये स्वर्ग में जाने का अधिकार मिल जाता है. जनश्रुति यह भी है कि ब्रह्मा ने अपने मन-मस्तिष्क से मानसरोवर बनाया है. दरअसल, मानसरोवर संस्कृत के मानस (मस्तिष्क) और सरोवर (झील) शब्द से बना है. मान्यता है कि ब्रह्ममुहुर्त (प्रात:काल 3-5 बजे) में देवता गण यहां स्नान करते हैं. ग्रंथों के अनुसार, सती का हाथ इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह झील तैयार हुई. इसलिए इसे 51 शक्तिपीठों में से भी एक माना गया है.

क़ैलाश मानसरोवर की यात्रा (Kailash Mansarovar Yatra Route Details in Hindi): क़ैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए तीर्थयात्रियों को भारत की सीमा लांघकर चीन में प्रवेश करना पड़ता है क्योंकि यात्रा का यह भाग चीन में है. कैलाश पर्वत की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 20 हजार फीट है. यह यात्रा अत्यंत कठिन मानी जाती है. कहते हैं जिसको भोले बाबा का बुलावा होता है वही इस यात्रा को कर सकता है. 

सामान्य तौर पर यह यात्रा 28 दिन में पूरी होती है. कैलाश पर्वत कुल 48 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. कैलाश पर्वत की परिक्रमा वहां की सबसे निचली चोटी दारचेन से शुरू होकर सबसे ऊंची चोटी डेशफू गोम्पा पर पूरी होती है. यहां से कैलाश पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है, मानों भगवान शिव स्वयं बर्फ से बने शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं. इस चोटी को हिमरत्न भी कहा जाता है.

कैलाश मानसरोवर (Kailash Mansarovar): कैलाश पर्वत पर एक गौरीकुंड है. यह कुंड हमेशा बर्फ से ढका रहता है, मगर तीर्थयात्री बर्फ हटाकर इस कुंड के पवित्र जल में स्नान करते हैं. यह पवित्र झील समुद्र तल से लगभग 4 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है और लगभग 320 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है. यहीं से एशिया की चार प्रमुख नदियां- ब्रह्मपुत्र, करनाली, सिंधु और सतलज निकलती हैं.

कैलाश मानसरोवर का महत्व (Importance of Kailash Mansarovar): मान्यता के अनुसार, जो व्यक्ति मानसरोवर (झील) की धरती को छू लेता है, वह ब्रह्मा के बनाये स्वर्ग में पहुंच जाता है और जो व्यक्ति झील का पानी पी लेता है, उसे भगवान शिव के बनाये स्वर्ग में जाने का अधिकार मिल जाता है. जनश्रुति यह भी है कि ब्रह्मा ने अपने मन-मस्तिष्क से मानसरोवर बनाया है. दरअसल, मानसरोवर संस्कृत के मानस (मस्तिष्क) और सरोवर (झील) शब्द से बना है. 


मान्यता है कि ब्रह्ममुहुर्त (प्रात:काल 3-5 बजे) में देवता गण यहां स्नान करते हैं. ग्रंथों के अनुसार, सती का हाथ इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह झील तैयार हुई. इसलिए इसे 51 शक्तिपीठों में से भी एक माना गया है. गर्मी के दिनों में जब मानसरोवर की बर्फ पिघलती है, तो एक प्रकार की आवाज भी सुनाई देती है. श्रद्धालु मानते हैं कि यह मृदंग की आवाज है. एक किंवदंती यह भी है कि नीलकमल केवल मानसरोवर में ही खिलता और दिखता है.

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

MahaShaktiका वह कौन स्थान है जहाँ पर पहली बार अश्वत्थामा ने चखा था दूध?

सितंबर 29, 2023 0

जहां पहली बार अश्वत्थामा ने चखा था दूध


देहरादून में पहाड़ की गोद में विराजमान भगवान टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग मंदिर की प्राकृतिक छटा निराली है। जहां पहाड़ी गुफा में स्थित यह स्वयंभू शिवलिंग भगवान की महिमा का आभास कराती है तो वहीं मंदिर के पास से गुजरती टोंस नदी की कलकल बहतीं धाराएं श्रद्धालुओं को द्रोण और अश्वत्थामा के तप और भक्ति की गाथा सुनाती है। महर्षि द्रोण और अश्वत्थामा की तपस्या और शिव की पाठशाला की गवाह रही यह नदी भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस मंदिर की चरचा महाभारत में भी है। इस शिवलिंग की सबसे रोचक बात यह है कि द्वापर युग में शिवलिंग पर दूध की धाराएं गिरती थी।


दूध प्राप्ति का आशीर्वाद दिया
कहते हैं कि दूध से वंचित गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा ने भगवान भोलेनाथ की छह माह तक कठोर तपस्या की। अश्वत्थामा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दूध प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और पहली बार अश्वत्थामा ने इसी मंदिर में दूध का स्वाद चखा था। टपकेश्वर को दूधेश्वर भी कहा जाता है।
द्रोणनगरी में स्थित टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग महर्षि द्रोणाचार्य की सिर्फ तपस्थली नहीं रही, बल्कि यहीं पर गुरु द्रोण ने भगवान शिव से शिक्षा भी ग्रहण की थी। द्वापर युग में टपकेश्वर को तपेश्वर और दूधेश्वर के नाम से भी जाना जाता था।

भोले की उपासना करने की सलाह
कहा जाता है कि पहाड़ी गुफा में स्थित शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया बल्कि स्वयं प्रकट हुआ है। इसलिए इसे स्वयंभू कहा जाता है। यहां देव से लेकर गंधर्व तक भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। पास ही कलकल बहती टोंस नदी जो द्वापर युग में तमसा नदी के नाम से प्रसिद्ध था, में जल क्रीडा करते थे।

कहा जाता है कि जब महर्षि द्रोण हिमालय की ओर तपस्या करने के लिए निकले तो ऋषिकेश में एक ऋषि ने उन्हें तपेश्वर में भगवान भोले की उपासना करने की सलाह दी। गुरु द्रोण अपनी पत्नी कृपि केसाथ तपेश्वर आ गए। गुरु द्रोण जहां शिव से शिक्षा लेने केलिए तपस्या करते थे, वहीं उनकी पत्नी कृपि पुत्र रत्न की प्राप्ति केलिए जप करती थीं।

शिव की महिमा पसंद नहीं आई
भगवान शिव प्रसन्न हुए और कृपि को अश्वत्थामा जैसा पुत्र प्राप्त हुआ, वहीं द्रोण को शिक्षा देने केलिए भगवान रोज आने लगे। मां कृपि को दूध नहीं होता था, इसलिए वो अश्वत्थामा को पानी पिलाती थीं। मां के दूध से वंचित अश्वत्थामा को मालूम ही नहीं था कि श्वेत रंग का यह तरल पदार्थ क्या है। अपने अन्य बाल सखाओं को दूध पीते देखकर अश्वत्थामा भी अपनी मां से दूध की मांग करते थे।

दिन प्रतिदिन अश्वत्थामा के बढ़ते हठ के कारण महर्षि द्रोण भी चिंतित रहने लगे। एक दिन महर्षि द्रोण अपने गुरु भाई पांचाल नरेश राजा द्रुपद के पास गए। राजा दु्रपद धन वैभव के मद में चूर थे। गुरु द्रोण के आगमन पर प्रसन्न तो हुए। लेकिन उन्हें द्रोण के मुख से भगवान शिव की महिमा पसंद नहीं आई।


गुरु द्रोण ने उनसे अपने पुत्र के लिए एक गाय की मांग की। राजसी घमंड में चूर पांचाल नरेश द्रुपद ने कहा कि अपने शिव से गाय मांगों, मेरे पास तुम्हारे लिए गाय नहीं है। यह बात महर्षि द्रोण को चुभ गई। वो वापस लौटे और बालक अश्वत्थामा को दूध केलिए शिव की आराधना करने को कहा। अश्वत्थामा ने छह माह तक शिवलिंग के सामने बैठकर भगवान की कठोर आराधना शुरू कर दी तभी एक दिन अचानक श्वेत तरल पदार्थ की धारा शिवलिंग के ऊपर गिरने लगी।

सब भगवान शिव की महिमा यह देखकर अश्वत्थामा ने अपने माता पिता को इस आश्चर्य के बारे में बताया। महर्षि द्रोण ने जब देखा तो समझ गए कि यह सब भगवान शिव की महिमा है। फिर एक दिन भगवान भोलेनाथ उन्हें दर्शन देकर बोले की अब अश्वत्थामा को दूध के लिए व्याकुल नहीं होना पड़ेगा। उसी धारा से अश्वत्थामा ने पहली बार दूध का स्वाद चखा। उस समय जो भी भक्त भोले के दर्शन करने तपेश्वर आता था, वो प्रसाद के रूप में दूध प्राप्त करता था।

कहते हैं यह सिलसिला कलयुग तक चलता रहा। पर बाद में भोले के इस प्रसाद का अनादर होने लगा। यह देखकर शिवशंकर ने दूध को पानी में तब्दील कर दिया, और धीर धीरे यह पानी बूंद बनकर शिवलिंग पर टपकने लगा। आज तक यह ज्ञात नहीं हुआ कि यह पानी कहां से शिवलिंग के ऊपर टपकता है। पानी टपकने केकारण कलयुग में यह मंदिर भगवान टपकेश्वर केनाम से प्रसिद्ध हो गया।


हालांकि अब इस स्वयंभू शिवलिंग के चारों ओर कई मंदिर बन गए हैं। जिसमें वैष्णव माता का मंदिर भी शामिल है। यहां आज भी वही शांति और भक्ति की अनुभूति होती है, जो कथाओं में सुनने को मिलती है। ऐसी आस्था है कि आज भी देश और गंधर्व यहा भगवान भोले के दर्शन को आते हैं। यहां शाम को प्रतिदिन भगवान शिव का श्रृंगार किया जाता है। टपकेश्वर जाने के लिए सबसे नजदीक बस अड्डा और रेलवे स्टेशन देहरादून है।

श्रद्धा और भक्ति
-प्रत्येक सोमवार को भोलेनाथ का विशेष श्रृंगार।
-महाशिवरात्रि केदिन यहां भव्य पूजा होती है।
-पूरे सावन यहां पूजा होती है और भारी भीड़ रहती है।
-नवरात्र में भी यहां पूजा केसाथ भव्य सजावट होती है।
-यहां पर ही स्थित कलिका मंदिर भी प्रसिद्ध है।
-कलकल बहती टोंस नदी भी लोगों को आकर्षित करती है।


Shubh Muhurat क्या है. श्रेष्ठ नक्षत्र. श्रेष्ठ ऋ‍तु. श्रेष्ठ पक्ष. श्रेष्ठ वार क्या हैं ?

सितंबर 29, 2023 0

किसी भी कार्य का प्रारंभ करने के लिए शुभ लग्न और मुहूर्त को देखा जाता है। जानिए वह कौन-सा वार, तिथि, माह, वर्ष लग्न, मुहूर्त आदि शुभ है जिसमें मंगल कार्यों की शुरुआत की जाती है।

श्रेष्ठ दिन
दिन और रात में दिन श्रेष्ठ है। वैदिक नियम अनुसार हर तरह का मंगल कार्य दिन में ही किया जाना चाहिए। अंतिम संस्कार और उसके बाद के क्रियाकर्म भी दिन में ही किए जाते हैं।

श्रेष्ठ मुहूर्त
दिन-रात के 30 मुहूर्तों में ब्रह्म मुहूर्त ही श्रेष्ठ होता है। पुराने समय में जब बिजली नहीं होती थी तो लोग जल्दी सो जाते थे और ब्रह्म मुहूर्त में उठकर कार्य करने लगते थे। जबसे बिजली का अविष्कार हुआ तब से व्यक्ति की दिनचर्या ही बदल गई। ब्रह्म मुहूर्त में उठने के कई लाभ शास्त्रों में बताए गए हैं।

मुहूर्तों के नाम
एक मुहूर्त 2 घड़ी अर्थात 48 मिनट के बराबर होता है। 24 घंटे में 1440 मिनट होते हैं। मुहूर्त सुबह 6 बजे से शुरू होता है:- रुद्र, आहि, मित्र, पितॄ, वसु, वाराह, विश्वेदेवा, विधि, सतमुखी, पुरुहूत, वाहिनी, नक्तनकरा, वरुण, अर्यमा, भग,गिरीश, अजपाद, अहिर, बुध्न्य, पुष्य, अश्विनी, यम, अग्नि, विधातॄ, क्ण्ड, अदिति जीव/अमृत, विष्णु, युमिगद्युति, ब्रह्म और समुद्रम।

श्रेष्ठ वार
सात वारों में रवि, मंगल और गुरु श्रेष्ठ है। इनमें भी गुरुवार को सर्वश्रेष्ठ इसलिए माना गया है क्योंकि गुरु की दिशा ईशान है और ईशान में ही देवताओं का वास होता है।
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श्रेष्ठ चौघड़िया
दिन और राज के मिलाकर 7 चौघडि़या होते हैं जो वार अनुसार दिन और रात में बदलते रहते हैं। ये चौघड़िया है- शुभ, लाभ, अमृत, चर, काल, रोग, उद्वेग। शुभ, अमृत और लाभ चौघड़िया को ही श्रेष्ठ माना गया है उसमें भी शुभ चौघड़िया सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसका स्वामी गुरु है। अमृत का चंद्रमा और लाभ का बुध है। प्रत्येक चौघड़िए की अवधि डेढ़ घंटा होती है। समयानुसार चौघड़िया को तीन भागों में बांटा जाता है शुभ, मध्यम और अशुभ चौघड़िया।

शुभ चौघडिया: शुभ (स्वामी गुरु), अमृत (स्वामी चंद्रमा), लाभ (स्वामी बुध)
मध्यम चौघडिया: चर (स्वामी शुक्र)
अशुभ चौघड़िया: उद्बेग (स्वामी सूर्य), काल (स्वामी शनि), रोग (स्वामी मंगल)

श्रेष्ठ पक्ष
महीने में 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं। कृष्ण और शुक्ल पक्षों के दो मास में शुक्ल पक्ष श्रेष्ठ है। चंद्र के बढ़ने को शुक्ल और घटने को कृष्ण पक्ष कहते हैं। शुक्ल की पूर्णिमा और कृष्ण की अमावस्या होती है। दोनों पक्षों में शुक्ल पक्ष को ही शुभ कार्यों के श्रेष्ठ माना जाता है।

श्रेष्ठ एकादशी
प्रत्येक पक्ष में एक एकादशी होती है इस मान में माह में दो एकादशी। प्रत्येक वर्ष 24 और अधिकमास हो तो 26 एकादशियां होती हैं। प्रत्येक एकादशी का अपना अलग ही लाभ और महत्व है। उनमें भी कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी श्रेष्ठ है। प्रदोष को भी श्रेष्ठ माना गया है।


श्रेष्ठ माह
मासों में चैत्र, वैशाख, कार्तिक, ज्येष्ठ, श्रावण, अश्विनी, मार्गशीर्ष, माघ, फाल्गुन श्रेष्ठ माने गए हैं उनमें भी चैत्र और कार्तिक सर्वश्रेष्ठ है। हिन्दू मास के नाम:- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन।

'श्रेष्ठ पंचमी'
प्रत्येक माह में पंचमी आती है। उसमें माघ मास के शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी श्रेष्ठ है। सावन माह की नाग पंचमी भी श्रेष्ठ है।

'श्रेष्ठ अयन'
छह माह का दक्षिणायन और छह का उत्तरायण होता है। दक्षिणायन और उत्तरायण मिलाकर एक वर्ष माना गया है। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो देव सो जाते हैं और
उत्तरायण होता है तो देव उठ जाते हैं। अत: उत्तरायण श्रेष्ठ है।

'श्रेष्ठ संक्रांति'
सूर्य की 12 संक्रांतियों में मकर संक्रांति ही श्रेष्ठ है। सूर्यदेव जब धनु राशि से मकर पर पहुंचते हैं तो
मकर संक्रांति मनाई जाती है। इस समय सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन हो जाता है। सूर्य के राशि परिवर्तन को संक्रांति कहते हैं। 12 संक्रांतियों में से चार- मेष, कर्क, तुला और मकर संक्रांति महत्वपूर्ण हैं।

'श्रेष्ठ ऋ‍तु'
छह ऋतुओं में वसंत और शरद ऋतु ही श्रेष्ठ है। 1. बसंत ऋतु, 2.ग्रीष्म ऋतु, 3.वर्षा ऋतु, 4.शरद ऋतु, 5.हेमन्त ऋतु, 6.शिशिर ऋतु।

'श्रेष्ठ नक्षत्र'
नक्षत्र 27 होते हैं उनमें कार्तिक मास में पड़ने वाला पुष्य नक्षत्र श्रेष्ठ है। इसके अलावा अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, श्रावण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, रेवती नक्षत्र शुभ माने गए हैं।


शुभ मुहूर्त क्या है?
मुहूर्त दो तरह के होते हैं शुभ मुहूर्त और अशुभ मुहूर्त। शुभ को ग्राह्य समय और अशुभ को अग्राह्‍य समय कहते हैं। शुभ मुहूर्त में रुद्र, श्‍वेत, मित्र, सारभट, सावित्र, वैराज, विश्वावसु, अभिजित, रोहिण, बल, विजय, र्नेत, वरुण सौम्य और भग ये 15 मुहूर्त है।

रवि के दिन 14वां, सोमवार के दिन 12वां, मंगलवार के दिन 10वां, बुधवार के दिन 8वां, गुरु के दिन 6टा, शुक्रवार के दिन 4था और शनिवार के दिन दूसरा मुहूर्त कुलिक शुभ कार्यों में वर्जित हैं।

Vara Lakshmi Vrat: जानिए पूजा विधि और महत्व के बारे में

सितंबर 29, 2023 0



हिंदू धर्म में सुहागिन महिलाओं के लिए कई व्रत बताए गए हैं।वरलक्ष्मी व्रत 2023 तिथि, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और महत्व: 

वरलक्ष्मी व्रत सावन महीने के आखिरी शुक्रवार को मनाया जाता है। यह व्रत देवी लक्ष्मी को समर्पित है।

इस साल वरलक्ष्मी व्रत इसलिए खास है क्योंकि इस दिन सावन पूर्णिमा का भी महासंयोग बन रहा है. शिव जी के साथ-साथ आपको लक्ष्मी मां का भी आशीर्वाद मिलेगा।

ऐसे में आइए जानते हैं कि वरलक्ष्मी व्रत कब पड़ रहा है। साथ ही जानिए इस दिन का शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और महत्व.

वरलक्ष्मी व्रत 2023 तिथि (Varalakshmi Vrat 2023 Date)

वरलक्ष्मी व्रत तिथि प्रारंभ: 24 अगस्त, गुरुवार, सुबह 5:55 बजे

वरलक्ष्मी व्रत तिथि समाप्त: 25 अगस्त, शुक्रवार (शुक्रवार) शाम 6:50 बजे

ऐसे में सूर्योदय के अनुसार वरलक्ष्मी व्रत 25 अगस्त को रखा जाएगा.


वरलक्ष्मी व्रत 2023 शुभ मुहूर्त (Varalakshmi Vrat 2023shubh Muhurat)

पूजा मुहूर्त: प्रातः 5:55 से प्रातः 7:42 तक

रात्रि 10:50 बजे से 12:45 बजे तक

वरलक्ष्मी व्रत 2023 पूजा विधि

वरलक्ष्मी व्रत के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें।

पूजा स्थल को गंगा जल छिड़क कर शुद्ध और स्वच्छ करें।

मां वरलक्ष्मी का ध्यान करते हुए व्रत रखने का संकल्प करें।

लकड़ी की चौकी पर साफ लाल कपड़ा बिछाएं।

मां लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें (मां लक्ष्मी की पूजा के नियम) प्रतिमा के पास चावल रखें.

इसके बाद चावल के ऊपर एक कलश में जल भरें.

कलश के चारों ओर चंदन का लेप लगाएं। मां के मंत्रों का जाप करें.

देवी लक्ष्मी को पुष्णा, नारियल, हल्दी, कुमकुम, माला चढ़ाएं।

मां वरलक्ष्मी को सोल श्रृंगार अर्पित करें। मिठाई का आनंद लें.

फिर धूप और घी का दीपक जलाएं और वरलक्ष्मी मां से प्रार्थना करें।

पूजा के बाद वरलक्ष्मी व्रत कथा का पाठ करें।

अंत में आरती करें और सभी में प्रसाद बांट दें।

वरलक्ष्मी व्रत 2023 महत्व (Varalakshmi Vrat 2023 Significance)

वरलक्ष्मी व्रत मनचाहा वरदान देने वाला और वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने वाला माना जाता है।

वरलक्ष्मी देवी लक्ष्मी का एक रूप है जिन्हें भगवान विष्णु की पत्नी के रूप में जाना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि वरलक्ष्मी व्रत रखने से अष्ट सिद्धियों और महालक्ष्मी का वरदान मिलता है।

इस व्रत को रखने से घर और वैवाहिक जीवन पर मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

जानिए श्राद्ध तक क्यों बर्जित है शुभ कार्य करना Shradh Paksh

सितंबर 28, 2023 0


जानिए श्राद्ध तक  क्यों बर्जित है शुभ कार्य करना

श्राद्धपक्ष का संबंध मृत्यु से है इस कारण यह अशुभ काल माना जाता है। जैसे अपने परिजन की मृत्यु के पश्चात हम शोकाकुल अवधि में रहते हैं और अपने अन्य शुभ, नियमित, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को विराम दे देते हैं, वही भाव पितृपक्ष में भी जुड़ा है।

इस अवधि में हम पितरों से और पितर हमसे जुड़े रहते हैं। अत: अन्य शुभ-मांगलिक शुभारंभ जैसे कार्यों को वंचित रखकर हम पितरों के प्रति पूरा सम्मान और एकाग्रता बनाए रखते हैं।

श्राद्ध में कौए-श्वान और गाय का महत्व
* श्राद्ध पक्ष में पितर, ब्राह्मण और परिजनों के अलावा पितरों के निमित्त गाय, श्वान और कौए के लिए ग्रास निकालने की परंपरा है।
* गाय में देवताओं का वास माना गया है, इसलिए गाय का महत्व है।
* श्वान और कौए पितरों के वाहक हैं। पितृपक्ष अशुभ होने से अवशिष्ट खाने वाले को ग्रास देने का विधान है।
* दोनों में से एक भूमिचर है, दूसरा आकाशचर। चर यानी चलने वाला। दोनों गृहस्थों के निकट और सभी जगह पाए जाने वाले हैं।
* श्वान निकट रहकर सुरक्षा प्रदान करता है और निष्ठावान माना जाता है इसलिए पितृ का प्रतीक है।
* कौए गृहस्थ और पितृ के बीच श्राद्ध में दिए पिंड और जल के वाहक माने गए हैं।

श्राद्ध गणना का कैलेंडर
श्राद्ध पक्ष भाद्र शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक होता है। इस अवधि में 16 तिथियां होती हैं और इन्हीं ति‍थियों में प्रत्येक की मृत्यु होती है।

सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए, क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। नौ की संख्या भारतीय दर्शन में शुभ मानी गई है।

संन्यासियों के श्राद्ध की ति‍थि द्वादशी मानी जाती है (बारहवीं)।
शस्त्र द्वारा मारे गए लोगों की ति‍थि चतुर्दशी मानी गई है। विधान इस प्रकार भी है कि यदि किसी की मृत्यु का ज्ञान न हो या पितरों की ठीक से जानकारी न हो तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाए।

श्राद्ध पर्व पर यह कथा अधिकांश क्षेत्रों में सुनाई जाती है। कथा के अनुसार, महाभारत के दौरान, कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग में पहुंची तो उन्हें बहुत सारा सोना और गहने दिए गए। कर्ण की आत्मा को कुछ समझ नहीं आया,

उन्होंने देवता इंद्र से पूछा किउन्हें भोजन की जगह सोना क्यों दिया गया। तब देवता इंद्र ने कर्ण को बताया कि उसने अपने जीवित रहते हुए पूरा जीवन सोना दान किया लेकिन श्राद्ध के दौरान अपने पूर्वजों को कभी भी खाना दान नहीं किया।

तब कर्ण ने इंद्र से कहा उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनके पूर्वज कौन थे और इसी वजह से वह कभी उन्हें कुछ दान नहीं कर सकें।

इस सबके बाद कर्ण को उनकी गलती सुधारने का मौका दिया गया और 16 दिन के लिए पृथ्वी पर वापस भेजा गया, जहां उन्होंने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध कर उन्हें आहार दान किया। तर्पण किया, इन्हीं 16 दिन की अवधि को पितृ पक्ष कहा गया।